Kavita
‘भाषाएं'
भाषायें जानती हैं,
नहीं मिलेगा उन्हें अमरत्व
नहीं पी पाई थीं
समुद्र मंथन से निकला अमृत
अहसास है आने वाले संकट का
विलुप्त होने का
अर्थ खोने का।
अवसर भी है दबाब भी
नये रुप धरने का
पर, सहमी हुई हैं
मतलब समझ रही है कि
गज को ही चुरा ले गया कोई,
युधिष्ठिर के कहे से।
अश्वथामा के तले ही
सत्य दब गया।
कोई स्माइली कोई इमोटिकॉन
चुपका कर शब्दों की सांस
ही घोंट गया।
बेजान नहीं हैं,
वे बेचैन हैं
संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन,
औषधि-शास्त्र या विज्ञान
किन्हें सौंपे
यक्ष प्रश्न बना हुआ है।
कचोटता है प्रश्न उन्हें जब
असुरक्षित महसूस करने लगती
हैं,
डर बना हुआ है भीतर
मालूम है उन्हें
तकनीकों और पुरस्कारों की
बैसाखियों पर
या संस्थाओं के वेंटीलेटर
से ली
उधारी की सांसों पर
बहुत दिन कुलांचें नहीं भर
पायेंगी
वे बहती हुई नदियां हैं
स्रोत जल सोखेगा तो
तो सूख जायेंगी
या स्वयं ही ले लेंगी समाधी
हालाँकि फिर संस्कृतियाँ भी
नहीं बच पायेंगी
खो जायेंगे बहुत से विचार
शब्दों के साथ
सूख जायेंगे आंसू और
संवेदनाएं।
इंसान भी कितने इंसान
बचे रह पाएंगे
इतना कुछ खोने के बाद
कहना मुश्किल है
रही यदि चंद ही शेष
तो समुंदर की तरह महाकार हो
किस तरह अपनी विश्व सत्ता
चलाएंगी।
सोचना है बाकी सब क्या फिर
समुंद्र में विलीन हो
जायेंगी
रहस्य की परतें बन कर।
हजारों साल बाद
निकालेंगे गोताखोर
भग्नावशेष।
वैसे पुनर्जन्म की संभावना
सुकून के लिए अच्छी बात है
लेकिन संकटों के साथ बचे
रहने
में छुपा है जीवन का सार
खोज पाए तो ठीक वरना
करना होगा इंतजार
अगले समुद्र मंथन का।
'घर, घर मांगता है’
घर मुझसे
पलाश की चटख-मटख मांगता है।
सदाबहार की शोख कलियाँ,
खुशियों की वल्लरियाँ,
तितलियाँ का इठलाना मांगता
है
ये घर है अजब
वैभव नहीं, उल्लास मांगता है।
बहुत चतुर है
अलियों की -
झींगुर की गुनगुन,
पैजनियों की झुनझुन मांगता
है।
अहाता में गीली मिट्टी की
जादू
बिखराती गंध मांगता है।
साथ में बातें नहीं
बातों का अंबार मांगता है।
प्रेम ही नहीं, मेरा दर्द भी मांगता है।
चाँद-तारे नहीं, झील नहीं
उर-सिन्धु की चंचल चपल लहरों
की छेड़छाड़ मांगता है।
मिलने जाओ तो
मुझसे मुस्कराहट मांगता है।
अजब है घर हो कर
मुझसे घर मांगता है।
'बाकी है अभी तो'
लिखने दो अभी,
मत रोको लेखनी।
अभी तो लिखना बाकी है
बहुत कुछ।
अभी तो मिट्टी को
जल में डुबोया है।
दीपों के जिस्म में प्राणों
का
सींचना बाकी है।
अभी तो बस किरदार दीपक का
लिख कर उठा हूँ।
सुलगते हैं कैसे ग़म,
धड़कता है कैसे दिल
दर्दो का अहसास लिये
दीपों को अभी बताना बाकी
है।
जिन्दगी के बियाबान में
उठती आंधियों में
अपने भीतर अगन
बचाये रखना।
दीपों में लौ जलाना बाकी
है।
इसी लौ से निकलेंगे
कुछ नए किस्से
और नए किरदार
फिर शुरू होगी नई जुस्तजू
जिनका अभी अंधेरे को
पार कर नये मुकाम तक
पहुंचना बाकी है।
दीयों को जला कर
स्वयं में चिर जिज्ञासा
जगाना बाकी है
कहाँ रोशनी अंधेरों में
फंस तड़पती है
जानना बाकी है।
जहां नफरतें उगती हैं
जहाँ आस्थाएं भटकती हैं
देखना बाकी है।
थम जाना कुछ देर
अभी दीयों को
टूटे हुए को जोड़ना
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